Wednesday, November 17, 2010

श्रद्धा जैन की रचनाओ से साभार

अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया

नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया

उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू[1] के लिए, माहताब[2] छोड़ गया

गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे[3] पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया

सहर[4] के डूबते तारे की तरह बन 'श्रद्धा'
हरिक दरीचे[5] पे जो आफ़ताब[6] छोड़ गया

शब्दार्थ:

1. ↑ बातचीत
2. ↑ चाँद
3. ↑ आकृति
4. ↑ सुबह
5. ↑ खिड़की
6. ↑ सूरज

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