"कुछ कवितायें समझ में भले ही न आती हों, किंतु वे मेरी शांती भंग करने में सम्र्थ थी, मेरे मन को वे अक्सर उस दिशा में भेज देती थीं जिस दिशा में कहीं कोई क्षितिज नहीं था, न कोई किताब खुल कर बंद होती थी। मेरी चेतना के घाट बंध चुके थे, मेरी चमड़ी मोटी हो चुकी थी, मेरे मुहावरे अब बदले नही जा सकते थे। अतएव किसी के लिए यह असंभव कार्य था की वे मुझे बदल कर अपनी राह पर लगा लें।"
(रामधारी सिंह दिनकर, उद्धरण : संचयिता)
Saturday, March 8, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment