Friday, December 31, 2010

नीलकंठ




उड़ान



बांबे (डार्टर) (अन्हिंगा रूफा)




शिकार के बाद आराम ...





उड़ान













परिवार




दिन कुछ धुंधला सा था पर फिर भी धुप कुछ तो थी

प्रवासियों के साथ मौसम का प्रथम भ्रमण

Thursday, December 30, 2010

सुबह सुबह ये भी मिले






थोड़ी दूर थे पर जूम लेंस से थोड़ी सी राहत सी लगी
हालांकि फोकस और बाकी सेटिंग्स सीखना भी बड़ा काम है
पर पहली ही बार के हिसाब से कुछ ज्यादा बुरा तो नहीं ...



सूर्योदय : चार चित्र




नए कैमरे के साथ तारतम्य बिठाने की कोशिश






कुछ परीक्षण चित्र

Tuesday, November 23, 2010

एक पुराना शगल ....

१०० वी पोस्टिंग

छाया चित्रण की ओर फिर से बढ़ते कदम
देखें इस बार क्या हाथ लगता है

Wednesday, November 17, 2010

ज्ञान प्रकाश विवेक की रचनाओ से

ज़िन्दगी के लिए इक ख़ास सलीक़ा रखना
अपनी उम्मीद को हर हाल में ज़िन्दा रखना

उसने हर बार अँधेरे में जलाया ख़ुद को
उसकी आदत थी सरे-राह उजाला रखना

आप क्या समझेंगे परवाज़ किसे कहते हैं
आपका शौक़ है पिंजरे में परिंदा रखना

बंद कमरे में बदल जाओगे इक दिन लोगो
मेरी मानो तो खुला कोई दरीचा रखना

क्या पता राख़ में ज़िन्दा हो कोई चिंगारी
जल्दबाज़ी में कभी पाँव न अपना रखना

वक्त अच्छा हो तो बन जाते हैं साथी लेकिन
वक़्त मुश्किल हो तो बस ख़ुद पे भरोसा रखना

श्रद्धा जैन की रचनाओ से साभार

अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया

नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया

उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू[1] के लिए, माहताब[2] छोड़ गया

गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे[3] पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया

सहर[4] के डूबते तारे की तरह बन 'श्रद्धा'
हरिक दरीचे[5] पे जो आफ़ताब[6] छोड़ गया

शब्दार्थ:

1. ↑ बातचीत
2. ↑ चाँद
3. ↑ आकृति
4. ↑ सुबह
5. ↑ खिड़की
6. ↑ सूरज

Monday, September 13, 2010

Something interesting keep on happening all around. Just take a moment to enjoy.

Friday, June 25, 2010

On a very hot and dry but windy day.

Friday, June 11, 2010

अक़ल का कब्ज़ा हटाया जा रहा है

विनय कुमार के रचना संग्रह से साभार:


अक़ल का कब्ज़ा हटाया जा रहा है।

जिस्म का जादू जगाया जा रहा है।

लाख पी लो प्यास बुझती ही नहीं है क्या पता क्या-क्या पिलाया जा रहा है।

हर तरफ डाकू बसाए जा रहे हैं वक़्त को बीहड़ बनाया जा रहा है।

हद ज़रूरत की उफ़क़ छूने लगी है क़द ज़रूरत का बढ़ाया जा रहा है।

सोचने से मुल्क बूढ़ा हो गया है सोच से पीछा छुड़ाया जा रहा है।

सख्तजां हैं ये हरे फल हरे पत्ते पेड़ को नाहक हिलाया जा रहा है।

नींद धरती की उड़ाई जा रही है चांद को सोना सिखाया जा रहा है।

साजिशें मुझको गिराने की कहीं हैं क्यों मुझे इतना उठाया जा रहा है।