Friday, April 16, 2010

बशीर बद्र : उजाले अपनी यादों के

अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा

ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा

मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा

बशीर बद्र : उजाले अपनी यादों के

न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की

सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की

मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की

Thursday, April 15, 2010

नेमिचंद्र जैन की रचनाओं से साभार

आगे गहन अन्धेरा है, मन रुक-रुक जाता है एकाकी
अब भी है टूटे प्राणों में किस छबि का आकर्षण बाक़ी
चाह रहा है अब भी यह पापी दिल पीछे को मुड़ जाना
एक बार फिर से दो नैनों के नीलम नभ में उड़ जाना
मन में गूँज रहे हैं अब भी वे पिछले स्वर सम्मोहन के
अनजाने ही खींच रहे हैं धागे भूले-से बन्धन के
किन्तु अन्धेरा है यह, मैं हूँ, मुझ को तो है आगे जाना
जाना ही है--पहन लिया है मैंने मुसाफ़िरी का बाना
आज मार्ग में मेरे अटक न जाओ यों ओ सुधि की छलना
मैं निस्सीम डगर का राही मुझ को सदा अकेले चलना
इस दुर्भेद्य अन्धेरे के उस पार बसा है मन का आलम
रुक न जाए सुधि के बांधों से प्राणों की यमुना का संगम
खो न जाए द्रुत से द्रुततर बहते रहने की साध निरन्तर
मेरे-उस के बीच कहीं रुकने से बढ़ न जाए यह अन्तर ।