Thursday, December 31, 2009

वह खोई हुई चीज़ नहीं मिलती
दिनों तक कितनी ही चीज़ों में उसकी
झलक आती है अंधेरे में हम उससे मिलती-जुलती
चीज़ को उठाकर तौलने भी लगते हैं ।
घर में रास्ते में बरसों बाद भी कौंध जाती
है वह खोई हुई चीज़ । और जब चीज़ों के
खोने के बारे में बातें होती हैं,
वही याद आती है सबसे अधिक ।

Wednesday, December 30, 2009

हँसती हुई लड़की में
दौड़ते हुए लड़के में ।
फूलों में, घास में
झुर्रियों में ।
धूप में । चांदनी में ।

लहरों में, करवटों में--
हवा की ।
बादलों में ।
उछालों में
पर्वतों की ।

दहाड़ में समुद्र की ।
गलियों में । पाँत में पेड़ों की ।
स्त्रियों की आँखों में ।
पाँखों में चिड़ियों की ।

जीवन । जीवन ।
इतना जीवन ।



जिन्दगी हर जगह, पड़ाव दुबे पुल के नीचे.


परत दर परत उधड़ता आदमी, सिनेमा के पुराने पोस्टर की तरह.





Sunday, October 18, 2009


एक कविता लिखना चाहता हूँ

हो रही है शाम ।
डूबने वाले हैं अंधेरे में पेड़ ।
इमारतों के ओर-छोर ।
घर जाना चाहती हैं चिड़ियाँ ।
एक सन्नाटा है यहाँ ।
खाली पड़ी हैं बगीचे की कुर्सियाँ ।

आ रही हैं घरों से
आवाज़ें मिली-जुली ।

आकाश फ़िर लौट आया है अपने में ।

एक कविता लिखना चाहता हूँ ।

प्रयाग शुक्ल की रचनाओं से साभार.

Monday, September 21, 2009


गड़गड़ाते हुए
बादल
पेड़ तक, घर तक ।
हवा को भेजते
दर-दर ।


Sunday, September 6, 2009

Khel dhoop chhaonv ka....

वैसे तो सीमा नहीं दृष्टि की
लेकिन जो ऊपर है
और जो नीचे है-
यहाँ ऎन सामने
हम पर कुछ बरसाता-सरसाता,
उससे एक अलग ही
नाता है।

प्रयाग शुक्ल की रचनाओ से साभार ....



Wednesday, September 2, 2009

रोज उठने बैठने की साथ में मजबूरिया,

वरना कोई कम नहीं है दोस्ती की मुश्किलें .

Tuesday, September 1, 2009

Sunday, August 30, 2009


अभी चली जाएगी शाम यह
निकट अंधेरे के ।

बुझते प्रकाश में--
मोरों का बोलना
मंडराना चिड़ियों का
पत्तियों का हिलना

सिमटना आकाश का ।

साथ वही, देखो फिर
अनलिखा !

Saturday, August 29, 2009


चांद चढ़ रहा है
आकाश में--
इस शहर में ।
रिक्शों की घंटियाँ,
भोंपू गाड़ियों के,
तितर-बितर आवाज़ें ।

..........................

चढ़ रहा है चांद,
एक दूसरे शहर में ।

Friday, August 28, 2009

मोबाइल ब्लोगिंग की पहली पोस्ट


और वो शुरुआत नाश्ते के साथ .................................

Wednesday, August 26, 2009

एकला चलो रे


एक अकेला पथ

कभी कभी


साधारण भी असाधारण सा महसूस होता है
पता नही कितने और लोग इस बात को समझने में समय लगाते है

वहीँ पास में ये भी पाया गया

पेड़ को चिंता नहीं है ठूँठ की
चिड़ियाँ चहचहाती हैं
मैं जब एक पगडंडी पर चला जा रहा होता हूँ
घास पर-- पीली मुरझाई घास पर

और कैद किया गया

एक और


वही पुराना शगल ! जनवरी की सर्दियों में सरसों के खेत से गुजरते हुए इसने पकड़ कर रोक लिया

बड़े दिनों बाद


व्यस्तता के बीच जगह कम बचती है पर ये क्या कम है की जगह है
और पूरी शिद्दत के साथ है