दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या-रब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँढता है मेरा
ऐसा सुकून जिसपर तक़दीर भी फ़िदा हो
मरता हूँ ख़ामुशी पर यह आरज़ू है मेरी
दामन में कोह के इक छोटा-सा झोंपड़ा हो
हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना
शरमाए जिससे जल्वत ख़िलवत में वो अदा हो
मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल
नन्हे-से उसके दिल में खटका न कुछ मिरा हो
आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा
फिर-फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो
पानी को छू रही हो झुक-झुक के गुल की टहनी
जैसे हसीन कोई आईना देखता हो
फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने
रोना मेरा वज़ू हो, नाला मिरी दुआ हो
हर दर्दमंद दिल को रोना मेरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं, शायद उन्हें रुला दे
Wednesday, May 25, 2011
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