Tuesday, November 23, 2010

एक पुराना शगल ....

१०० वी पोस्टिंग

छाया चित्रण की ओर फिर से बढ़ते कदम
देखें इस बार क्या हाथ लगता है

Wednesday, November 17, 2010

ज्ञान प्रकाश विवेक की रचनाओ से

ज़िन्दगी के लिए इक ख़ास सलीक़ा रखना
अपनी उम्मीद को हर हाल में ज़िन्दा रखना

उसने हर बार अँधेरे में जलाया ख़ुद को
उसकी आदत थी सरे-राह उजाला रखना

आप क्या समझेंगे परवाज़ किसे कहते हैं
आपका शौक़ है पिंजरे में परिंदा रखना

बंद कमरे में बदल जाओगे इक दिन लोगो
मेरी मानो तो खुला कोई दरीचा रखना

क्या पता राख़ में ज़िन्दा हो कोई चिंगारी
जल्दबाज़ी में कभी पाँव न अपना रखना

वक्त अच्छा हो तो बन जाते हैं साथी लेकिन
वक़्त मुश्किल हो तो बस ख़ुद पे भरोसा रखना

श्रद्धा जैन की रचनाओ से साभार

अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया

नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया

उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू[1] के लिए, माहताब[2] छोड़ गया

गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे[3] पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया

सहर[4] के डूबते तारे की तरह बन 'श्रद्धा'
हरिक दरीचे[5] पे जो आफ़ताब[6] छोड़ गया

शब्दार्थ:

1. ↑ बातचीत
2. ↑ चाँद
3. ↑ आकृति
4. ↑ सुबह
5. ↑ खिड़की
6. ↑ सूरज